Monday 16 May 2016

संतोष

शाम की चंचलता में , मन मेरा वीरान था.
हर आज मैं अपने 'कलों' से परेशान था.
जो बीत गया वो नीरस था,
जो आयेगा वो नीरस है.
निकल गया मैं बाहर सोच ये ,
क्या सब में इतना धीरज है ?
कौतहूल को पहला मील का पत्थर घर के पास मिला, कूडा कर कट बीनता बच्चा ,
लेकर चेहरा खिला खिला 
मैने पुछा पढो लिखो ये कचरा क्यूं उठाते हो,
क्या कुछ बनना नहीं चाहते ?
स्कूल क्यू नहीं जाते हो ? 
वो मुझको तक कर के बोला , पैसे नहीं हैं मेरे पास.
खुशी नहीं ये कर के , पर होना नहीं है मुझे उदास .
अभी तो ये ही मेरी ज़िंदगी , चाहे कितना चीखुं रो रो के.
होगा अच्छा जब होना होगा ,
अभी क्यू ना  जियूं मैं खुश हो के.
उन थोडे से शब्दों ने,
मुझे अंदर तक झंकझोर दिया .
असंतोष को तोड़ा मेरे,
धक्का खुशियों की ओर दिया .
उस एक मील के पत्थर ने. मुझे कोसो दूर पहुंचा दिया ...
जो रूखी रूखी रहती थी,
उन्हे  फ़िर  चंचल शाम सा बना दिया .
आयुष जैन
:) 

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