Tuesday 20 December 2016

वो दौर.....

दुनिया की खुशियों के लिये ,खुद से गद्दारी कर बैठे.
इक दौर भी होता था
हम खुद को हन्साया करते थे.
सब बिन सोचे समझे करते ,और मज़े उठाया करते थे.
अंज़ाम बुरा हो या अच्छा
हम तो इठलाया करते थे.

हार जीत का ज्ञान ना था,
बस खेले जाया करते थे.
जीता कौन है पता नहीं
हम नाचा गाया करते थे.

तब भी ऐसे ही थे,
खुद को ही रुलाया करते थे.
फ़िर पता था कोई नहीं आना , तब खुद को मनाया करते थे.
खुद से माफ़ी मांगते थे
और चुप करवाया करते थे.
फ़िर चुप होकर के  फ़िर से
हम
खुद के संग गाया करते थे.

जब अकेले होते थे, दुनिया की कोई फ़िक्र ना थी.
ईमान था खुद के लिये और हम बस मुस्काया करते थे. :)
आयुष :)

Tuesday 16 August 2016

शहीद 🚩

#शहीद

लाड़ला वो सबका ,
था सब से छोटा ,
वर्दी में गया था,
तिरंगे में लौटा .

पर उसकी भौंह पर ,
फक्र ज्यों का त्यों है .
बस एक दुख है
ये आंखें बंद क्यों हैं ?

क्या बचपन के जैसे
मज़ाक कर रहा है ये ,
धड़कते धड़कते दिल
सवाल कर रहा है ये .

लो बता ही दिया उसके
साथियों ने मुझको .
रोक सा दिया इन धड़कती
धड़कनों को.

आन्सू तो आए, पर रोना ना आया ,
लगा जैसे बहुत कुछ अभी मैने पाया .
मेरे दुख और सुख में समर* हो गया ,
मेरा बेटा मर के अमर हो गया .

देश को दिया है कुछ , मैं गर्व में रहूंगा .
मैं सारी दुनिया से अभिमान से कहूंगा ..

वो था प्यारी लोरी ,
राष्ट्र गीत हो गया .
मेरा इकलौता बेटा
शहीद हो गया .

आयुष :)
*समर - युद्ध, सन्ग्राम

Thursday 11 August 2016

पढाई 📚

काश दुनिया आगे आई ना होती,
काश ज़िंदगी में पढ़ाई ना होती।
ना होता ये डिग्री, ये कॉलेज का झंझट,
ना कोचिंग ना ट्यूशन ना स्कूल का झंझट।
ना कुछ कर गुज़रने की इच्छा होती,
ना होता सफलताएं पाने का झंझट।
गर होनी ही थी, तो एक
जैसी होती,
शहर गांव कस्बों में एक जैसी होती।
नहीं जाना पड़ता फ़िर सब से बिछड़ कर,
शहर में ना बसता मैं घर से पिछड़ कर।
मां रहती, सब रहते, और मैं भी रहता,
मैं सारी तकलीफें उन्हें जाकर कहता।
पढ़ाई लिखाई में घर नहीं बिरसता,
यूं कुछ शब्द कहने को मन नहीं तरसता।
जो उनके लिये करने का सोचा है मैंने,
वो उनके ही संग रह कर मैं करता।
जो लिख लिख के करता हूँ खुद से मैं बातें,
वो सब उनको बताकर करता।
कोई मेरी बातों को 'ऊपर' पहुंचा दो,
पढ़ाई संग मुझे मेरे घर पहुंचा दो।
:)

Wednesday 27 July 2016

पूर्वा :)


#पूर्वा

ऐ पूर्वा! सुन मेरी , यूं ही बहते बहते .
उसकी ओर चली जा , मेरी बात कहते कहते .
पर शोर कम मचाना , ज़रा हौले से जाना ,
क्या भरोसा  दुनिया का , यहां इंसान हैं रहते .

बिना शब्दों वालीं ये बातें पुरानी ,
हुआ करतीं थी, कभी मुंह ज़ुबानी .
सिर्फ तुझसे कहता हूं, पर वादा ये कर ,
कहीं मेरा किस्सा बन ना जाये कहानी.

मेरे कोरे पत्रों को , उसको दे आना ,
और बदले में बस उसकी , महक तू ले आना .

सुन, पूर्वा ! महक जो तु संग अपने लाती ,
वो मानो की मेरा मनुज्ज्वल कर जाती.
यूं धूल मिट्टी के छोटे छोटे कणौं में ,
कुछ हू ब हू उसकी सूरत बन जाती .

तू धीरे से जाना , और जल्दी से आना ,
मेरी ये कहानी , कहीं मत सुनाना .
और शोर कम मचाना , तू बहते बहते ,
भरोसा नहीं , यहां इंसान हैं रहते !


आयुष :)


Thursday 16 June 2016

खोया बचपन

वो सादे से क ख ग घ ,
पढे हुए कई साल हो गये,
खूब तज़ुर्बा कमा लिया अब ,
हमे बडे हुए कई साल हो गये !
भागम भाग दौड़ना अब जीवन का हिस्सा है
नंगे पैर यूहीं घांस पे
चले हुए कई साल हो गये

अब तो रुकने के नाम पे
बस चाल धीमी होती है
वो नदिया की धारा में
खडे हुए कई साल हो गये

एसा नहीं की अब  बचपन की याद नहीं आती है ,
आके वो ही तो सूखी
पलकों की प्यास बुझाती है
मां के प्यार से सने वाले वो
अब सूखे सूखे गाल हो गये
प्यार से काढा करती थी वो  अब तो
आडे तिरछे बाल हो गये!

बस रोना और हंसना होता था ,
अब तो जाने कितने हाल हो गये :')
आदत है पर इन सबकी अब
हमे बडे हुए कई साल हो गये ! :')
आयुष :)

Wednesday 8 June 2016

घर 🏠

घर , जहां खुशियां बसती हैं .
घर जहां खुशियां हंसती हैं .
दिन भर थकने के बाद जहां जाने को जी चाहे.
एक बार मरने के बाद
जहां जीने को जी चाहे.

मन में लालसा लिये , यश कीर्ती कमाने की .
लोभ ये की सारी खुशियां
जीत लें ज़माने की .
चलते चलते जाने कितना दूर आ गया हूं  मैं ,
राह ही नहीं दिखती वापस घर जाने की .

अब तो मोह भंग हो गया है इस सफलता से भी,
त्रप्त और त्रस्त हो गया हूं भाग दौड़ से भी .
नहीं पाना जीत कोई , कोई मंज़िल नहीं पाना .
वो सुकून चाहिये है , हां मुझे अब घर है जाना .




आयुष :')

Thursday 2 June 2016

चौराहा +

जीवन की इस सरल राह पर आया जो इक चौराहा !
कदम वहीं पर ठिठक गये
किस ओर बढू  , किस राह चलूं ! 

राहें आपस में लड़ती थीं
सब कहती मैं हूं आसान ,
चुनो मुझे और  जल्दी छूलो 
अपने सपनो का आसमान ,

दुविधा में तब मन पड़ जाता
किसे चुनू किसको छोडू
ना जाने क्या मिलना आगे
कहां चलूं किस ओर मुड़ू !

सब पे एक साथ जाने को 
ये पागल मन करता है
पर मन को समझा कर के
दुख के घूंट पिला कर के
इक राह पे आगे बढा दिया
मानो सारी इच्छाओं को मीठी नींद सुला दिया

बस सुकून था इस मसले का 
की अब एक राह होगी
की इन आंखों ने देख लिया फ़िर एक नया चौराहा ! :')
आयुष

Wednesday 18 May 2016

मेरी कलम

कलम ये मेरे जब तक जी में जान है ,चलती जायेगी .
मैं इसमे ढलता जाऊंगा ,
ये मुझको लिखती जायेगी .
जितनी मुझ में सान्से हैं ,
उतनी स्याही है इस में ,
जितना अनुराग मुझ में है ,
उतना सम्मोहन है इस में .
ये ही मेरी है ज़ुबान,
जो मेरा  अन्तर्मन  लिखती.
जो भी मन में पकता है
वो शब्दों मे परोसती .
मेरे सारे गीत मेरी कलम गाते जायेगी ,
सान्से थमी मान लेना ,
जो मेरी कलम रुक जायेगी .

आयुष :)

Monday 16 May 2016

संतोष

शाम की चंचलता में , मन मेरा वीरान था.
हर आज मैं अपने 'कलों' से परेशान था.
जो बीत गया वो नीरस था,
जो आयेगा वो नीरस है.
निकल गया मैं बाहर सोच ये ,
क्या सब में इतना धीरज है ?
कौतहूल को पहला मील का पत्थर घर के पास मिला, कूडा कर कट बीनता बच्चा ,
लेकर चेहरा खिला खिला 
मैने पुछा पढो लिखो ये कचरा क्यूं उठाते हो,
क्या कुछ बनना नहीं चाहते ?
स्कूल क्यू नहीं जाते हो ? 
वो मुझको तक कर के बोला , पैसे नहीं हैं मेरे पास.
खुशी नहीं ये कर के , पर होना नहीं है मुझे उदास .
अभी तो ये ही मेरी ज़िंदगी , चाहे कितना चीखुं रो रो के.
होगा अच्छा जब होना होगा ,
अभी क्यू ना  जियूं मैं खुश हो के.
उन थोडे से शब्दों ने,
मुझे अंदर तक झंकझोर दिया .
असंतोष को तोड़ा मेरे,
धक्का खुशियों की ओर दिया .
उस एक मील के पत्थर ने. मुझे कोसो दूर पहुंचा दिया ...
जो रूखी रूखी रहती थी,
उन्हे  फ़िर  चंचल शाम सा बना दिया .
आयुष जैन
:) 

Sunday 10 April 2016

मैं और किस्मत

खेल ले जी भर के ऐ किस्मत ..
जीत ले मुझसे जी भर के .
मैं भी थोडा नादां हूं,
खेल रहा हूं लड़ लड़ के.

करता हूं संघर्ष बहुत ,
कठिन भी है तुझसे लड़ना 
करता हूं कोशिश पूरी ,
पर बस तू साथ नहीं है ना .

पर कोई ना मैं सीख रहा हूं,
और मैं जल्दी सीखूंगा .
तू मोम सी पिघलेगी जब मैं ,
तुझमे लौ मेहनत की झोंकूंगा.

सुन ऐ मेरी  किस्मत यूं तो हुनर भी मुझ में काफ़ी है
शायद मेरा समर्पण ही है ,जो थोडा नाकाफी है .
पर इक दिन मैं दूर करून्गा अपनी इन कमियों को भी .

मेहनत और समर्पण होगा 
की साथ रहेगी तब तू भी .
तुझको मंत्रमुग्ध कर के मैं तेरा साथ कमाऊन्गा .
सीख के तेरा हुनर तुझसे ही .
मैं तुझसे जीत जाऊन्गा .
:')
आयुष :)

Monday 21 March 2016

लकीरों का घर

जो खतम बचपने का पहर हो गया है ,
ये माथा लकीरों का घर हो गया है .

समझ जो है पा ली अब अच्छे बुरे की ,
अब अच्छा बुरा ये शहर हो गया है .
जो है समझदारी अब दुनियागिरी की ,
वो मासूमियत को ज़हर हो गया है .

समझ में है आने लगी ज़िंदगी अब ,
जो बिल्कुल ही ऐसी नहीं दिखती थी तब.
वो बिन सोचे समझे की खिलखिलाहटें
थीं ,
कहीं दूर जा कर जो हैं बस गयीं अब .
मुस्कुराहटो पर भी मानो 'कर ' हो गया है ,
ये माथा लकीरों का घर हो गया है .

वक्त तब गुज़र जाता था खुद की बक बक में ,
वक्त अब नहीं है खुद से पल भर बतियाने को.
दिन भर निकल जाता था मिट्टी के घर बनाने में ,
अब दिन भर निकल जाता है 'सच का घर' बनाने को.
होड़ हुड़दंग जो मचा है
सफल बन ने को,
वो मन के सुकूं को कहर हो गया है .
.
जो खतम बचपने का पहर हो गया है ,
ये माथा लकीरों का घर हो गया है .

आयुष
:')

Wednesday 16 March 2016

मेरी सुन !

मत भटक मेरे तू मीत मेरी सुन,
पहले मन की प्रीत तेरी सुन !
छोटी हार से सीख बड़ा
सा ,
होगी तेरी जीत मेरी सुन !

माना मन विचलित है तेरा ,  चल हलचल सी रहती है
जिन आंखों से सपने देखे
वो आंखे नम रहती हैं !
मन करता है कोई हमराही आकर के समझा दे,
मन में आत्मविश्वास जगा के राह ठीक सी दिखला दे!
पर सुन इस दुनिया में
कोई जीवन आसान नहीं ,
सबकी अपनी तकलीफें
अपने अपने दर्द गमी !

तो तू खुद ही सोच ये कैसे तुझको प्रेरित करे कोई !
खुद से अच्छी प्रेरणा तुझको ना दे सकता और कोई !
जो है बस सब तू खुद ही है
खुद का खुदा तू खुद ही है
मत तक रे तू राह किसी की
करना सब कुछ खुद ही है !

उठ जाग खड़ा हो पैरो पर
और चल पड़ मंजिल पाने को ,
खुद से खुद में जोश फूंक ले
सफलता की ये रीत मेरी सुन !
क्या है मन की प्रीत तेरी सुन,
होगी तेरी जीत मेरी सुन !!



- आयुष

Sunday 13 March 2016

बचपन की बारिश

सो रहा था मैं की कौन्धी एक सौन्धी सी महक ,
गर्जना थी बादलों की
और बून्दो की चहक.

शनै: शनै: काला वर्ण आसमां का हो रहा .
गर्मी का प्रताप मीठे
अंधकार में खो रहा .

देख बून्दो को बरसते ,
बच्चे खुल के खिलखिलाते ,
और जब बिजली कडकती,
मां से आके लिपट जाते.

ज्यों ज्यों मिट्टी भीगती है ,
मन ये मेरा भीग जाता.
सूंघ ये मिट्टी की खुश्बू ,
अपना बचपन याद आता.

पहली बून्द गिरते ही ,
आंगन में दौड़ जाते थे.
जन्मदिन की तरह ही,
"बारिशें" मनाते थे.

आज बून्द देख के ही ,
मन प्रफुल्लित हुआ जाता.
सूंघ के मिट्टी की खुश्बू ,
अपना बचपन याद आता.


-आयुष

 :')