Monday 21 March 2016

लकीरों का घर

जो खतम बचपने का पहर हो गया है ,
ये माथा लकीरों का घर हो गया है .

समझ जो है पा ली अब अच्छे बुरे की ,
अब अच्छा बुरा ये शहर हो गया है .
जो है समझदारी अब दुनियागिरी की ,
वो मासूमियत को ज़हर हो गया है .

समझ में है आने लगी ज़िंदगी अब ,
जो बिल्कुल ही ऐसी नहीं दिखती थी तब.
वो बिन सोचे समझे की खिलखिलाहटें
थीं ,
कहीं दूर जा कर जो हैं बस गयीं अब .
मुस्कुराहटो पर भी मानो 'कर ' हो गया है ,
ये माथा लकीरों का घर हो गया है .

वक्त तब गुज़र जाता था खुद की बक बक में ,
वक्त अब नहीं है खुद से पल भर बतियाने को.
दिन भर निकल जाता था मिट्टी के घर बनाने में ,
अब दिन भर निकल जाता है 'सच का घर' बनाने को.
होड़ हुड़दंग जो मचा है
सफल बन ने को,
वो मन के सुकूं को कहर हो गया है .
.
जो खतम बचपने का पहर हो गया है ,
ये माथा लकीरों का घर हो गया है .

आयुष
:')

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