Tuesday 20 December 2016

वो दौर.....

दुनिया की खुशियों के लिये ,खुद से गद्दारी कर बैठे.
इक दौर भी होता था
हम खुद को हन्साया करते थे.
सब बिन सोचे समझे करते ,और मज़े उठाया करते थे.
अंज़ाम बुरा हो या अच्छा
हम तो इठलाया करते थे.

हार जीत का ज्ञान ना था,
बस खेले जाया करते थे.
जीता कौन है पता नहीं
हम नाचा गाया करते थे.

तब भी ऐसे ही थे,
खुद को ही रुलाया करते थे.
फ़िर पता था कोई नहीं आना , तब खुद को मनाया करते थे.
खुद से माफ़ी मांगते थे
और चुप करवाया करते थे.
फ़िर चुप होकर के  फ़िर से
हम
खुद के संग गाया करते थे.

जब अकेले होते थे, दुनिया की कोई फ़िक्र ना थी.
ईमान था खुद के लिये और हम बस मुस्काया करते थे. :)
आयुष :)

3 comments:

  1. Lovely poem Ayush. ..I was taken aback to that wonderful era. ..I got a smile on my face after reading your poem...very nice...keep it up...keep doing the good work:)

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  2. Very Nice Brother!! Keep up and continue making poems like these. :)

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